मंगलवार, 16 अक्टूबर 2012

केजरीवाल की कंटीली राह

राजनीति/ गोविंद सिंह  
अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों के राजनीति में उतरने के फैसले को किसी गुनाह की तरह से नहीं, एक जनांदोलन की स्वाभाविक परिणति के रूप में देखा जाना चाहिए। यह घोषणा ऐसे समय में हुई है, जब भारत की जनता पारंपरिक राजनीति से आजिज आ चुकी है और शिद्दत से विकल्प की जरूरत महसूस कर रही है। हमारा संसदीय लोकतंत्र असहाय अवस्था में पड़ा हुआ है। वह लंगोटिया पूंजीवाद यानी क्रोनी कैपिटलिज्म का पोषक भर बनकर रह गया है। ऐसे में अरविंद केजरीवाल का ऐलान ताजा हवा के झोंके की तरह है। राजधानी दिल्ली में निजी वितरण कंपनियों द्वारा रातोंरात बिजली की दरें बढ़ाए जाने के खिलाफ जिस तरह से उन्होंने उग्र आंदोलन छेड़ रखा है, उससे यह एहसास मजबूत ही होता है। इसीलिए उन्हें देख कर अन्य दलों के पैर तले की जमीन खिसकती नजर आ रही है।
नई पीढ़ी का आंदोलन
आजादी के बाद से ही हम सुनते आए हैं कि राजनीति में अच्छे लोगों को आना चाहिए। पर सचाई यह है कि अच्छे लोग राजनीति से दूर छिटकते गए हैं। नतीजा यह हुआ कि हमारी राजनीति वंशवाद, भाई-भतीजावाद, जातिवाद, सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार की बंधक बनकर रह गई है। मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के भीतर ये अवगुण जरूरी बुराइयों की तरह पसर गए हैं। टीएन शेषन की तमाम कोशिशों के बावजूद चुनाव प्रक्रिया इतनी खर्चीली है कि अकूत धन के बिना कोई ईमानदार व्यक्ति चुनाव जीतने की कल्पना ही नहीं कर सकता। पिछले साल अन्ना आंदोलन शुरू हुआ, तो उसमें बड़ी संख्या में उन युवाओं ने शिरकत की, जो देश में परिवर्तन चाहते थे। वे किसी पार्टी या विचार को नहीं पहचानते थे। सिर्फ देश को वर्तमान बदहाली से बाहर निकालना चाहते थे। वे एक ऐसे विकल्प का सपना देख रहे थे, जो देश को सुरक्षित भविष्य की गारंटी देता हो। इस फेसबुक पीढ़ी को अनायास ही जैसे आशा की एक किरण नजर आने लगी थी।
अन्ना की दुविधा
यह ठीक है कि अन्ना आंदोलन इस जन सैलाब को इकट्ठा नहीं रख पाया। यह आंदोलन कोई काडर, राजनीतिक दल या संगठन तो था नहीं। यह तो भावनाओं का स्वत:स्फूर्त उद्रेक था। लेकिन इससे यह साबित होता है कि देश में वर्तमान व्यवस्था के खिलाफ एक मजबूत अंतर्धारा बह रही है। अरविंद केजरीवाल ने इस अंतर्धारा को बखूबी पहचाना है। बदलावकामी नई पीढ़ी को राजनीतिक ताकत में बदल पाना अरविंद केजरीवाल के लिए अत्यंत दुष्कर होगा, लेकिन यह प्रयास भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। जहां तक अन्ना का सवाल है, उनकी स्थिति गांधी की तरह है। वे दलगत राजनीति में शामिल नहीं हो सकते थे। वे बदलाव की बात तो करते थे लेकिन सत्ता सौंपने के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं था। कांग्रेस की बुराई करते हैं तो उन पर भाजपाई होने का ठप्पा लगता है, भाजपा की बुराई करते हैं तो वामपंथी होने का। इसलिए केजरीवाल अन्ना आंदोलन के सिद्धांतों को व्यावहारिक अंजाम दे रहे हैं। 
हमें नहीं मालूम कि केजरीवाल कहां तक अपने उसूलों पर टिके रह पाते हैं , लेकिन उनकी यह पहल गलत नहीं है। केजरीवाल की खूबी यह है कि वे संपूर्ण विकल्प का खाका पेश कर रहे हैं। जयप्रकाश नारायण की समग्र क्रांति के बाद यह पहला मौका है जब कोई आमूल परिवर्तन की बात कर रहा है। पिछले दिनों आई उनकी किताब ' स्वराज ' को पढ़ते हुए लगा कि हमारे राजनेताओं ने जिस तरह से लोकतंत्र को अपने सुविधातंत्र में बदल दिया है , उसको वह उखाड़ फेंकना चाहते हैं और इसके लिए उनके पास पूरी रणनीति है। केजरीवाल के विरोधी उन्हें लोकतंत्र विरोधी कहते हैं , जबकि उनकी किताब बताती है कि वह गांधीगीरी के रास्ते पर हैं। अरविंद केजरीवाल प्रत्यक्षत : जनता का राज चाहते हैं। आज लोकतंत्र में से लोक नदारद है। केजरीवाल कहते हैं कि विकास की योजनाएं ऊपर से थोपी नहीं जाएंगी , वे जरूरत के हिसाब से व्यवस्था के निचले पायदान पर बनेंगी और लागू होंगी। इस तरह सौंदर्यीकरण जैसी बेतुकी योजनाओं पर खर्च नहीं होगा और दलाली भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी।
जनता ही तय करेगी कि खर्च कहां और कैसे होगा। ग्राम पंचायतों से लेकर शहरी निकायों तक व्यवस्थापिका से जुड़े कर्मचारी और अफसर जनता के सीधे नियंत्रण में होंगे। आज की तारीख में गांवों की सेवा में नियुक्त व्यक्ति दरअसल गांव वालों पर हुक्म चलाता है। केजरीवाल का सिद्धांत विधानसभा और संसद तक पहुंचकर विधायिका और कार्यपालिका पर नकेल डालने की बात करता है। यानी नेता सदन में वही बात उठाए , जिसे जनता चाहती है। यदि वह ऐसा नहीं करता है तो जनता को राइट टु रिकॉल यानी वापस बुलाने का अधिकार होना चाहिए। वे मतदान में राइट टु रिजेक्ट के पैरोकार हैं। यानी चुनाव में जनता को हक़ होगा कि अगर कोई भी प्रत्याशी उन्हें पसंद हो तो वे सबको नकार सकें।
जनता का फैसला
केजरीवाल की आर्थिक रणनीति का खाका भी जनता के ही इर्द - गिर्द घूमता है। उनका कहना है कि संसद में जो नीतियां बनती हैं , वे जनता से पूछ कर तो बनती नहीं। ही हमारे नेता बहस करने या सवाल पूछने से पहले अपनी जनता से सलाह - मशविरा करते हैं। हाल के वर्षों में जिस तरह से एसईजेड के लिए जमीन अधिग्रहण का हिंसक विरोध अलग - अलग सरकारों को झेलना पड़ा , वह इसी नीति का नतीजा था। यदि पहले ही जनता से विचार - विमर्श करके फैसला किया होता तो सिंगूर या भट्टा - पारसौल जैसी घटनाएं घटी होतीं। ऊपर से थोपी गई योजनाएं ( चाहे वे बड़े बांध हों या आदिवासी इलाकों में खनन के ठेके ) बिना जनता की सहमति के लागू नहीं की जा सकेंगी। ये बातें पहले भी कही गई हैं , लेकिन केजरीवाल जिस तरह से आमूल बदलाव के पैरोकार बनकर उभरे हैं , उसमें इन्होंने नया अर्थ ग्रहण किया है। केजरीवाल मध्यवर्ग के लिए नई आशा लेकर आए हैं , हालांकि राजनीति में उनकी सफलता की बात अभी बेमानी होगी।

 

वनपाखियों का वसंत गान



ललित निबंध/ गोविंद सिंह                                         
घुघूती-बासूती. यानी घुघूती का वसंत गान. चैत का महीना शुरू होते ही घुघूती का गायन शुरू हो जाता है. कभी घुघूघू तो कभी घुर्रर्र- घुर्रर्र! वह जैसे समस्त पहाड़ों में छा जाती है, भाभर से पर्वत उपत्यकाओं तक. पेड़ की डाल पर, पुआल के ढेर पर, बिजली के तार पर और छत की मुंडेर पर वह गा रही है. पर्वतीय जनजीवन का इतना आत्मीय साक्षी शायद ही कोई और नभचर हो. कभी अपने पिया को संबोधित कर, तो कभी अपने नन्हे मुन्ने बच्चों को पुचकारती हुई. क्या गा रही है, कोई नहीं जानता. फिर भी लोगों ने उसके हर राग का अपना अर्थ निकाल लिया है. कभी वह घुघूती बासूती बोलती है, तो कभी सिर्फ घुर्र- घुर्र बोलती है तो कभी दर्द भरे स्वर में अपने बच्चों का दिल बहलाती है. हर कोई कयास ही लगाता है. गोपाल बाबू गोस्वामी के स्वर में उतर कर जब कोई कुमाउनी नायिका कहती है:

घुघूती नी बासा, घुघूती नी बासा,
आम की डायी में घुघूती नी बासा!
तेरी घुरू घुरू सुनी, मैं लागो उदासा,
स्वामी मेरो परदेश, बर्फीलो लदाखा!!
ऋतू आगे घनी-घनी, गर्मी चैते की,
याद मैं के भौते आगे, अपुन पती की!! घुघूती नी बासा...!
तो जैसे पर्वतीय जीवन का सम्पूर्ण दर्द उभर कर सामने आ जाता है. पहाड़ी नायिका बोलती है, ए घुघूती तू अपना गान रोक दे. तेरे गाने से मेरा जिया घबरा उठता है,  रह-रह कर मुझे अपने पिया की याद आती है, जो लद्दाख की बर्फीली चोटियों में ड्यूटी दे रहा होगा. तेरी तरह पंख होते तो मैं भी उड़ कर स्वामी के पास जाती और जी भर कर उसको निहारती.
इस तरह घुघूती का दर्द और विरह-विदग्ध नायिका का दर्द जैसे एक-मेक हो जाते हैं. उसके स्वर में विरह की वेदना है. प्रिय से बिछोह की हूक कैसी होती है, यह कोई घुघूती से पूछे. कभी उसके स्वर में मार्मिकता सुनाई पड़ती है तो कभी लगता है कि जैसे वह ढाढस बंधा रही है. आम तौर पर वह पति के विछोह में कलपती नायिका का प्रतीक है, लेकिन मायके की याद में बेहाल युवती के अनेक गीत भी उस पर चस्पां किये गए हैं. अल्मोड़े के किसी गाँव की युवती कहती है, ‘नी बासा घुघूती चैत की, मीके नराई लागे मैत की.’ यानी घुघूती तेरे गाने से मुझे अपने मायके की याद सताने लगती है. इसी तरह, ‘नी बास घुघूती, लागछी हिकुरी’. यानी घुघूती तेरे गाने से मुझे बार-बार हिचकी आती है. यह हिचकी सिर्फ हिचकी नहीं है, जब किसी अपने की याद में रुलाई आती है, तब बीच-बीच में जो हिचकी आती है, हिकुरी वही है.
उधर गढ़वाली के जाने-माने कवि नरेन्द्र सिंह नेगी कहते हैं,
घुघूती घुरूण लागी, म्यारा मैत की
बौरी- बौरी आगे ऋतु, ऋतु चैते की
अर्थात, घुघूती के गाते ही युवती के मानसपटल पर अपने मायके का एक बिम्ब खिंच जाता है, ‘चैत का महीना आ गया है, और मेरे मायके की घुघूती अपने दर्द भरे लहजे में गाने लगी है. मेरे मायके से दिखने वाली पर्वत श्रृंखलाओं की बर्फ पिघलने लगी होगी और वनों में फिर से नए पालो यानी पल्लव आ गए होंगे. पहाड़ की नायिका को अक्सर अपने मायके की याद आती है. तमाम लोकगीत इस बात के साक्षी हैं कि उसे मायके से बिछुड़ने का दर्द सालता है. चूंकि पहाड़ का जीवन, खास कर पहाड़ी नारी का जीवन अत्यंत कठोर होता है, उसे बेहद डरावनी पहाडियों में चढ़ कर घास और लकड़ी काटनी पड़ती है, खूंखार जानवरों वाले वनों से वनोपज इकट्ठी करनी पड़ती है, ऐसे में उसे एकमात्र सहारा अपने मायके की याद ही जान पड़ती है. वह ससुराल अकेले नहीं आती, उसके साथ पशु-पक्षी और उनकी यादें भी चली आती हैं. घुघूती का मर्मभेदी गान उसे जाने-अनजाने अपने मायके की यादों से जोड़ देता है.
घुघूती की ही तरह वसंत ऋतु में जिस वनपाखी की आवाज पहाड़ों में सबसे ज्यादा सुनाई देती है, वह है, काफल पाको. घुघूती तो अन्य ऋतुओं में भी दिख जाती है, लेकिन काफल पाको का संगीत सिर्फ चैत, बैशाख और हद से हद जेठ तक सुनाई देता है. जहां घुघूती बहुत धीरे बोलती है, जैसे मांएं अपने सोते हुए बच्चों को लोरी सुनाती हैं, वहीं काफल पाको की आवाज पूरे वन-प्रांतर में गूंजती रहती है. सुबह, दोपहर और रात, वह हर वक्त गाती रहती है. उसके भीतर प्रेम का ज्वार पूरे आवेग के साथ फूट पड़ता है. उसके शब्दों को भी अलग-अलग इलाकों के लोगों ने अपनी-अपनी बोलियों में ढाल लिया है. पर ज्यादातर इलाकों में जो कथा प्रचलित है, वह यही है:
काफल पाको, मील नी चाख्यो!
यानी काफल तो पक गए हैं, लेकिन मैंने नहीं चखे. लगे हाथ यहाँ काफल के बारे में भी बता दें. यह एक जंगली फल है, जो मई-जून में पकता है, और बेहद स्वाद होता है. इसकी कथा कुछ यों चलती है: एक गरीब माँ, गर्मियों में जंगल से काफल टीप कर लाती और उन्हें कस्बों में ले जाकर बेचती. इस तरह वह अपने परिवार का भरण-पोषण करती. एक बार वह एक टोकरी काफल टीप कर ले आयी और घर पर रख कर फिर से काफल टीपने जंगल चली गयी. अपनी बेटी से कह गयी कि खबरदार काफल पर हाथ न लगाना. बेटी ने भी काफल की रखवाली की लेकिन जब माँ लौट कर आयी तो उसे काफल कुछ कम दिखे. उसने बेटी को बहुत मारा, लेकिन अंत तक बेटी यही बोलती रही कि काफल उसने नहीं चखे. भूख-प्यास और गर्मी, ऊपर से माँ की मार. बेटी दम तोड़ देती है. और शाम को जब बरसात के बाद काफल की टोकरी फिर से भरी-भरी दिखती है, तब माँ की समझ में आता है कि वास्तव में काफल बेटी ने नहीं खाए, वे तो धूप में सूख गए थे, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. काफल पाको, मील नी चाख्यो, कहने वाला पक्षी वास्तव में कोई और नहीं, वह लड़की ही है, जो अब तक सफाई ही देती आ रही है. काफल पाको के संगीत में इतनी लयात्मकता है कि उस पर अनेक कहानियां गड़ी गयी हैं. ऐसी ही एक कहानी में काम के बोझ की मारी एक बहू बैशाख के महीने में अपनी सास से कहती है कि जंगल में काफल पक गए हैं, लेकिन तुम मुझ से इतने काम करवाती हो कि जंगल जाने और काफल टीपने की फुर्सत ही नहीं मिलती. काम के बोझ की मारी यह बहू एक दिन दम तोड़ देती है. और पक्षी का जन्म पाकर वन-वन गाती फिरती है, ‘काफल पाको, मील नी चाख्यो’! मैं जिस गाँव से आता हूँ, वह घाटी में है, वहाँ काफल नहीं होते. वहाँ लोगों ने उसके संगीत को नए शब्द दे दिए हैं:
घट को छ? गजिया लाटो!
खांछ क्या? ऑटो-पिट्टो!!
यानी चिड़िया पूछती है, घराट (पनचक्की) में  कौन है? उत्तर मिलता है, गजिया नामक लाटा (गूंगा). वह खाता क्या है, आटा-पिठा!! यानी बचा-खुचा आटा.
काफल पाको के बाद जिस चिड़िया की आवाज पर्वत जनों के हृदय को बेधती है, वह है कप्फू या कफुआ. कोयल की तरह इसका संगीत भी एक ही शब्द तक सिमटा हुआ है: कुक्कू! कुक्कू!! इसे आप कफ्फू भी सुन सकते हैं. असल बात यह है कि कफ्फू भी विरह वेदना और मायके की याद का प्रतीक है. पहाड़ी लोकगीत कफुआ के सन्दर्भों से भरे पड़े हैं.
बास कफुआ, मैतन को देश!
ईजा मेरी सुणली, तो भिटौली भेजली!!
युवती कफुआ से कहती है, मेरे प्यारे कफ्फू, तू मेरे मायके जा, वहाँ मेरे घर के सामने के पेड़ पर बैठ कर गीत गाना, तेरी आवाज सुनकर मेरी माँ समझ जायेगी और मुझे बुलाने के लिए भिटौली के साथ मेरे भाई को भेजेगी.
एक और गीत में:
कफुआ बासन लागो, फूली गैछा दैना!
कफुआ गीत गाने लगा है, वन-प्रांतर फूलों से महकने लगे हैं. चैत में सब बहनें मायके आयेंगी. तू नहीं आयेगी तो हमारे आंसू निकल आयेंगे!
ऐसे ही एक गीत में:
गैला पातळ न्योली बासछी, घामिलो दिन उदास लागछ!
ऊंचा डाणा मा कफुआ बासछा, कफू-कफू के मन काटी खांछा!!
यानी घाटियों में न्योली और ऊंचे पर्वतों में कफू अपनी दर्द भरी आवाज से विरह वेदना को बढ़ा देता है.
पर्वतीय जीवन के दर्द को अपनी आवाज में समाये हुए एक और पक्षी वसंत ऋतु में पूरे पहाड़ में गाता फिरता है. कफू तो सिर्फ पहाड़ों में ही मिलता है लेकिन यह पहाड़ की तलहटी में भी खूब सुनाई पड़ता है. इस हम इसके गान से ही जानते है, केसिदा!  
ओ केसीदा! ब्यू छड़ी दे!!
ओ केसीदा! ब्यू छड़ी दे!!
सुबह हो या दोपहर, शाम हो या रात, इसे कभी चैन नहीं. काफल पाको की ही तरह इसकी आवाज में भी जबरदस्त लय और कसक है. इसके पीछे भी एक दर्द भरी कहानी है: बैशाख में गेहूं कट जाने के बाद जब सबके खेतों में धान की बुवाई हो गयी तो एक बिधवा के खेत बिना बुवाई के ही रह गए, क्योंकि उसके खेत में बीज छिडकने वाला कोई नहीं था. केसिदा नामक मुंह बोले भाई को वह मदद के लिए कहती रही लेकिन आशाढ में किसके पास फुर्सत! इसी बीच वह विधवा चल बसी और खेत अनबोये ही रह गए. वही बिधवा इस मौसम में चिड़िया बन कर केसिदा को याद दिलाती रहती है कि मेरे खेत अनबोए ही ना रह जाएँ, इसलिए ओ केसिदा, बीज छिड़क दे!
घुघूती को छोड़ कर बाक़ी पक्षी वसंत और ग्रीष्म ऋतु में ही पहाड़ों में आते हैं. इन्हें कोयल वंशी कहा जा सकता है. क्योंकि ये कोयल की ही तरह बेहद शर्मीले होते हैं. इनकी आवाज तो वनों में गूंजती रहती है, लेकिन वे कभी दिखाई नहीं पड़ते. कफु, कोयल, काफल पाको और केसिदा न सिर्फ आकार-प्रकार में एक जैसे हैं, इनकी गायन शैली भी एक जैसी है. इनकी आवाज में जो आवेग है, वह अन्यत्र नहीं सुनाई पड़ता. कोयल को कुमाऊँ में न्योली कहते हैं. जब तक शहर नहीं पहुंचा था, तब तक मैं भी न्योली नामक चिड़िया को ही जानता था. लेकिन शहर आने के बाद पता चला कि दरअसल हमारा न्योली ही मैदानों का कोयल है. न्योली के बारे में भी कई कथाएं हैं. न्योली पूछती है, को हो को हो? अर्थात बटोही कौन है? यानी विरह-विदग्ध नायिका को बटोही को देख अपने पिया की याद हो आयी. वह पूछ रही है, बटोही कौन है, कौन है? न्योली यहाँ की एक अलग गीत-विधा भी है जो विरह गीतों के लिए जानी जाती है.
कहना न होगा कि ये वनपाखी वसंत ऋतु में अपनी वंशबेल बढाने के लिए ही पहाड़ों में आते हैं, लेकिन पर्वतीय समाजों ने इनके सुरों को अपने जीवन और दर्द से जोड़ लिया है. वास्तव में वन और वनपाखी हज़ारों वर्षों से मानव जीवन के सहचर रहे हैं, इसलिए उनके दुःख-दर्द और अपने दुःख-दर्द को एक ही तराजू पर रख कर तौलने से संतुलन बना रहता है. जिस दिन यह भाव बदलने लगता है, मनुष्य और प्रकृति का संतुलन भी गडबडा जाता है.
(गगनांचल, मार्च-अप्रैल, २०१२ से साभार)

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

धर्म और भूगोल सेऊपर 'हमारी बोली'

हिन्दी दिवस/ गोविंद सिंह
इन दिनों पश्चिमी दुनिया में रह रहे भारतीय और पाकिस्तानी मूल के युवाओं में अपनी भाषा को लेकर एक नयी चेतना जाग रही है. वे हिन्दी और उर्दू को मिलाकर ‘हमारी बोली’ नाम से एक नयी भाषा को स्थापित करने के लिए दुनिया भर में आंदोलन छेड़े हुए हैं. वे व्यक्तिगत रूप से तो इस मिली जुली भाषा का प्रचार-प्रसार कर ही रहे हैं, साथ ही तमाम सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भी जोर-शोर से अभियान छेड़े हुए हैं. वे यह भी चाहते हैं कि देवनागरी और अरबी लिपियों का झमेला छूटे और रोमन के जरिये काम चलने लगे.
हमारी बोली आन्दोलन के विस्तार में जाने से पहले इसकी पृष्ठभूमि में झांकें. इसमें कोई दो राय नहीं कि आजादी के बाद हिन्दी या राष्ट्रभाषा या राजभाषा का मसला भयानक उपेक्षा का शिकार रहा है. हमारे राजनेताओं ने अपने फायदे के लिए इसका दोहन तो बहुत किया लेकिन उसके प्रति अपनी जिम्मेदारी को कभी महसूस नहीं किया. नतीजा यह हुआ कि एक पूरी की पूरी पीढ़ी के मन में हिन्दी के प्रति हिकारत का भाव बना रहा. घटिया और भ्रष्ट अंग्रेजी बोलने और हिन्दी न जानने  में गर्व का भाव महसूस किया है हमारी पिछलीपीढ़ी ने. इसी कुंठा के साथ जब यह पीढ़ी वैज्ञानिक, इंजीनियर और प्राध्यापक बन कर यूरोप-अमेरिका गयी तो वहाँ भी इस कुंठा ने उसका पीछा नहीं छोड़ा. लेकिन संस्कृति के अन्य प्रतीकों को उन्होंने कभी नहीं छोड़ा. मसलन पूजा-पाठ, कर्म-कांड और शादी-व्याह जैसे अवसरों पर वे विशुद्ध भारतीय बने रहते, कम से कम अपने बच्चों को वैसा होने की नसीहत देते. सत्यनारायण की कथा, ओम जय जगदीश हरे, कराग्रे वसते लक्ष्मी, हनुमान चालीसा ... आदि-आदि के मामले में वे हिंदू बने रहते. उनका आग्रह रहता कि वे बहू हिन्दुस्तान से ही लाएं. वे पूजा-पाठ और शादी-व्याह जैसे अवसरों के लिए स्वदेश जरूर लौटते. आश्चर्य की बात यह है कि हिन्दी को उन्होंने कभी ऐसा स्थान नहीं दिया. वैसे यह बात भारतीय अभिजनों पर भी लागू होती है.
अपनी भाषा के प्रति ऐसे दोगले व्यवहार के ही कारण अनिवासी भारतीयों की नई पीढ़ी के मन में विद्रोह पैदा हुआ. वे न भारतीय रहे और न ही अमेरिकी हो पाए. उन्हें एबीसीडी यानी अमेरिका बोर्न कन्फ्यूज्ड देसी कहा जाने लगा. लेकिन अब इस दूसरी और तीसरी पीढ़ी के बच्चों के मन में अपनी जड़ों के प्रति अनुराग पैदा होने लगा है. चूंकि उनके मन में किसी तरह की कुंठा नहीं है, इसलिए वे भारत को अपने नज़रिए से देखना चाहते हैं. यहीं भाषा का मसला सामने आता है. एशियाई युवाओं, जिनमें भारतीय, नेपाली और पाकिस्तानी तो हैं ही, बंगलादेशी और कुछ हद तक श्रीलंकाई भी हैं, के मन में एक दक्षिण एशियाई भाषा का सपना कुलबुलाने लगा. उन्हें यह बात समझ में नहीं आती कि जो भाषा एक तरह से बोली जा रही हो, वह कैसे घर पहुँच कर हिन्दी और उर्दू में बदल जाती है. यों भी लिपियों से भाषा नहीं बनती, भाषा बनती है शब्दों, वाक्यों और ध्वनियों से. हाँ, लिपि भाषा का वाहन जरूर बनती है. यह लिपि की क्षमता पर निर्भर करता है कि वह कितनी कुशलता के साथ अपनी सवार भाषा को आगे ले जा सकती है. इसीलिए भाषा वैज्ञानिक हिंदी और उर्दू को दो भाषाएँ नहीं मानते. वे इसे दो लिपियों में एक भाषा कहते हैं. अमेरिकी स्कूलों में तो आज हिन्दी अध्यापक बनने के लिए दोनों लिपियों का ज्ञान जरूरी है.
संचार के क्षेत्र में नईटेक्नोलोजी के आने से नई पीढ़ी में अपनी भाषा के प्रति मोह यकायक उमड़ने लगा. लिपिउन्हें न देवनागरी आती थी और न ही अरबी. हाँ, उन्हें बोली आती थी, जिसे उन्होंनेअपने घरों में अपने बुजुर्गों को बोलते हुए सुना था. चाहे उसे हिन्दी कहिए याउर्दू. वे रोमन लिपि में धडल्ले से अपनी भाषा का प्रयोग करने लगे. ई-मेल, चैटिंग,सोशल मीडिया, सब तरफ रोमन हिन्दी का इस्तेमाल हो रहा है. यह बात भारत में भी बड़ेपैमाने पर हुई. फिल्मों के संवाद हों या टीवी की पटकथाएं, रोमन में हीअभिनेता-अभिनेत्रियों को दी जातीं. यूनिकोड में हिन्दी के आने से पहले तो बड़ेपैमाने पर रोमन का इस्तेमाल हुआ और मोबाइल में तो आज भी बहुत हो रहा है. विदेशयात्राओं पर जाने वाले हिन्दी पत्रकार रोमन में ही अपनी कॉपी भेजते. यहीं से हमारीबोली की अवधारणा जन्म लेने लगी. पाकिस्तानी पृष्ठभूमि के युवाओं को यह और भी जरूरीलगा, क्योंकि उनके यहाँ उर्दू लिपि कुछ देर से यूनिकोड में आई और देवनागरी कीतुलना में वह उतनी लोकप्रिय भी नहीं है. फिर अतीत यानी हिन्दी-उर्दू के उद्भव कालपर नजर दौडाई तो पाया कि ब्रिटिश भारत के पहले शिक्षा संस्थान फोर्ट विलियम कालेजके हेड मास्टर गिलक्राइस्ट ने भी दोनों भाषाओं के लिए रोमन लिपि की ही वकालत कीथी. उन्होंने हिन्दी-उर्दू के लिए जो रोमन सामानांतर दिए, आज भी वही चल रहे हैं. इसके अलावा वे १९९२ मेंशिकागो में हुए पहले अंतर्राष्ट्रीय उर्दू सम्मलेन में सैय्यद फसीह उद्दीन और कादर उन्नीस बेगम द्वारा प्रस्तुत उद्दीन-बेगम हिन्दी-उर्दू  रोमनीकरण स्कीम के भी अंध समर्थक हैं क्योंकि इस प्रस्ताव में भी हिन्दी-उर्दू और हिन्दुस्तानी के लिए रोमन लिपि की वकालत की गयी है.
हमारी बोली के प्रवर्तकों की दलील यह है कि देवनागरी और अरबी लिपियाँ चाहे-अनचाहे धार्मिक रूप सेएक-दूसरे को अस्वीकार्य हो गयी हैं. हिंदू समझते हैं कि अरबी लिपि इस्लाम की प्रतीक है और मुसलमान समझते हैं कि देवनागरी हिंदू धर्म से जुडी है. इस झगड़े में भाषा का अहित हो रहा है. दोनों भाषाएँ यदि एक हो जाएँ तो वह दुनिया की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी भाषा बन जाती है. मंदारी के बाद. चीन ने भी ऐसा ही किया. वहाँ सांस्कृतिक क्रान्ति से पहले प्रचलित तमाम भाषाओं को मिलाकर आधुनिक चीनी बना दी गयी थी. जिसे हम मंदारी कहते हैं. साथ ही हमारी बोली वाले हिन्दी में से कठिन संस्कृतनिष्ठ शब्दों और उर्दू में से कठिन अरबी-फारसी शब्दों को हटाने और प्रचलित अंग्रेजी शब्दों को मिलाने की वकालत करते हैं.
ऊपर से उनकी बात ज्यादा व्यावहारिक लगती है. यदि हम अपनी नई पीढ़ी को देखें तो भाषा का यह नया रूप उनकेज्यादा करीब बैठता है. लेकिन जिस हमारी बोली की बात वे कह रहे हैं, उसकी सबसे कुशल वाहक देवनागरी ही है. देवनागरी का वर्तमान रूप भी अपनी लम्बी संशोधन यात्रा के बाद बना है. दुर्भाग्य यह है कि नई पीढ़ी को नागरी लिपि का पता ही नहीं है. यदि नई पीढ़ी देवनागरी की वैज्ञानिकता का बारीकी से अध्ययन करे तो वह पायेगी कि इसमें कितना दम है. उसे केवल हिंदू लिपि कह कर खारिज नहीं किया जा सकता. उसमें कुछ और संशोधन कर लिए जाएँ तो वह बखूबी नई भूमिका को निभा सकती है. ( दैनिक हिंदुस्तान, १३ सितम्बर, २०१२ से साभार.)