रविवार, 8 दिसंबर 2013

नयी क्रान्ति के सूत्रधार केजरीवाल

राजनीति/ गोविन्द सिंह
महाभारत युद्ध के बाद जब कुरुक्षेत्र के आकाश में टंगे बर्बरीक के सिर से पूछा गया कि युद्ध कैसा रहा? उन्होंने आसमान से क्या-क्या देखा? किस योद्धा का प्रदर्शन कैसा रहा? तो बर्बरीक ने कहा कि मुझे तो एक ही व्यक्ति दिखा जो लड़ रहा था, वह था कृष्ण. बाक़ी लोग तो इधर-उधर दौड़ रहे थे. दिल्ली के चुनाव के बहाने यह कहा जा सकता है कि इस बार के चुनाव में एक ही व्यक्ति दिखाई पड़ रहा था, वह है अरविन्द केजरीवाल. दिल्ली की सड़कों पर चल रहे कांग्रेस और भाजपा के नेताओं को भलेही केजरीवाल ‘नाचीज’ लग रहे हों, लेकिन तटस्थ द्रष्टा जानते हैं कि केजरीवाल ने भारत में नई राजनीति की दुन्दुभी बजा दी है. उनका सन्देश है कि अब पुरानी राजनीति नहीं चलने वाली है. अब वक्त आ गया है, जनता को सचमुच सत्ता हस्तांतरित कर दी जाए. वह असली लोकतंत्र होगा. अभी की तरह का छद्म लोकतंत्र नहीं.
केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी बनाने से पहले ‘स्वराज’ नामकी एक किताब लिख कर देश को यह समझाने की कोशिश की थी कि वे किस तरह के लोकतंत्र की परिकल्पना कर रहे हैं. एक तरह से वे गांधी जी के सपने को साकार करना चाहते हैं, ‘गांधीगीरी’ के जरिये. वे लोकतंत्र को समाज के अंतिम पायदान पर खड़े आम आदमी तक पहुँचाना चाहते हैं. इसमें सिविल सोसायटी की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है. सिविल सोसायटी से आशय उस सचेत नागरिक समाज से है, जो देश और समाज के लिए चिंतित है. सचमुच ‘आप’ ने इस चुनाव में इस सचेत समाज की मदद ली है. जो लोग कभी राजनीति के बारे में सोचते तक नहीं थे, जो राजनीति नाम से ही नाक-भोंह सिकोड़ते थे, जिन्होंने कभी वोट नहीं दिया, वे भी इस चुनाव में निःस्वार्थ भाव से केजरीवाल को सफल बनाने में लगे हुए थे. वरना नौ महीने पहले बनी पार्टी के पास कहाँ से इतने प्रत्याशी आते और कहाँ से कार्यकर्ता? जबकि देखने में आया कि सबसे ज्यादा भीड़ ‘आप’ के ही पंडालों में थी. वे लोग भी बढ़-चढ़ कर काम कर रहे थे, जो केन्द्रीय स्तर पर मोदी को चाहते हैं और दिल्ली के स्तर पर केजरीवाल को. केजरीवाल ने जिस तरह से ७० विधान सभा क्षेत्रों के लिए अलग-अलग घोषणा पत्र जारी किये, वह जनतंत्र का हायपर लोकलाइजेशन अर्थात अति-स्थानीयकरण है. अर्थात लोकतंत्र में हर व्यक्ति अपनी हिस्सेदारी सुनिश्चित करना चाहता है. हर व्यक्ति को उसका लाभ मिलना चाहिए. गांधी जी यदि ग्राम स्वराज की बात करते थे, जेपी यदि सप्त क्रान्ति के जरिये अन्त्योदय की बात करते थे तो उस सबके पीछे भी यही मकसद था कि आम आदमी को लोकतंत्र का फायदा मिले. लेकिन अपने देश में लोकतंत्र के नाम पर मुट्ठी भर लोग ही अपनी रोटी सेकते रहे हैं. पचास साल तक तो समाजवादी लोकतंत्र के नाम पर कोटा-परमिट राज चलता रहा, एकाधिकारवाद का ही वर्चस्व रहा. पिछले १०-१५ वर्षों में जबसे नव उदारवाद आया है, यह आशा बंधी थी कि शायद इसका लाभ नीचे तक पहुंचेगा. पहुंचा भी लेकिन मध्य वर्ग तक ही. क्योंकि अभी भी अपने यहाँ क्रोनी कैपिटलिज्म (लंगोटिया पूंजीवाद) ही है. प्रभु वर्ग, अपने लंगोटिया दोस्तों के बीच ही लोकतंत्र के मुनाफों को बाँट लेता है. इस साथ-गाँठ को भेदने की जरूरत है.
अभी तक जो भी राजनीतिक दल सत्ता में रहे हैं, उन्होंने इस साठ-गाँठ को तोड़ने की कोई सार्थक कोशिश नहीं की है. कांग्रेस के अलावा जो भी सरकारें अभी तक सत्ता में आयी हैं, उन्होंने सत्ता के इस व्यवहार में कोई परिवर्तन किया हो, लगता नहीं. सत्ता में चाहे कोई भी रहा हो, सत्ता का मूल चरित्र वही रहा. वह लोकतंत्र को जनता तक नहीं पहुंचा पाया. आम आदमी यही कहता पाया गया कि ‘कोऊ नृप होय हमें का हानी’. यह भाव अब टूटना चाहिए. केजरीवाल न सिर्फ जागरूक वर्ग को जगाने में कामयाब रहे हैं, वहीं समाज की अंतिम सीढ़ी पर खड़े व्यक्ति को भी अपना मकसद समझाने में सफल रहे हैं. यही नहीं, नौ महीने में ही उन्होंने समाज के इन निष्क्रिय एजंटों को सक्रिय भी कर दिया है. निश्चय ही वे देश में नयी राजनीति के सूत्रधार हैं. बड़ी पार्टियों को उनसे सबक लेना चाहिए. (नव भारत टाइम्स, दिल्ली, नौ दिसंबर, २०१३ से साभार) 
यह भी देखें:
http://haldwanilive.blogspot.in/2012_10_01_archive.html

5 टिप्‍पणियां:

  1. Govind ji -indeed monumental outcomes. However, wish AAP or BJP had numbers to form the government. The TRISHANKU syndrome has not served India well. We can ill afford another election unless it is a direct contest between two and an outcome is assured. Your view ?

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  2. बहुत ही सुन्दर सर! केजरीवाल ने जो गंगा बहाई है उसे कुछेक सहायक नदियां मेलें तो भारतीय राजनीति में शुखद क्रांति अवश्यम्भावी है।

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  3. यह सच है कि 'आप' और उसके नेता अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के आम लोगों को जगाया है और एक तरह से 'लोक-हिस्सेदारी के जनतंत्र' (पार्टिसिपेटरी डेमोक्रेसी) की संभावना को ऐसे हताश समय में पैदा किया है, जब लगने लगा था कि 'लोकतंत्र' ऊपर बैठे कुछ अति-विशिष्ट शक्तिशालियों का ही खेल था. लेकिन कुछ शंकाएं भी पैदा होती हैं. याद आता है १९७७ का दिल्ली और देश का माहौल. जिस तरह इस बार शीला दीक्षित और उनका सारा कैबिनेट अज्ञात, अनजाने नौजवान उम्मीदवारों के हाथों ध्वस्त हुआ, उस बार इंदिरा गांधी, संजय गांधी, बंसी लाल सबके सब धूल चाट गये थे. लेकिन तीन साल के भीतर-भीतर इस जन उभार की परिणतियों ने वे खतरे भी उदाहरण के बतौर हमारे सामने प्रस्तुत किये, जिन्हें इस बार भी भूलना ज़रा कठिन सा लगता है. आप क्या अब दिल्ली में नहीं हैं?

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    1. आदरणीय उदय जी,
      आपका कहना सही है. हमें सन ७७ को नहीं भूलना चाहिए. लेकिन मुझे लगता है कि सन ७७ ने भी हमें बहुत कुछ दिया. भलेही यह प्रयोग विफल हो जाए, लेकिन यह एहसास ही अपने आप में बड़ी उपलब्धि है कि लोकतंत्र का विचार निम्नतम व्यक्ति तक पहुंचे. अब देखी कि दिल्ली में सरकार बनाने को कोइ दिलचस्पी नहीं दिखा रहा. क्योंकि अब सत्ता मलाई काटने की चीज नहीं, काँटों का ताज बनकर आयी है.

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